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Tuesday, April 3, 2012
Waging war against nation- diluting the definition - टलना फाँसी का बनाम राष्ट्र पर हमला / राजोआना से एक अंत क्यों, शुरुआत भी हो सकती है !
कानून का विशेषज्ञ नहीं हूँ लेकिन भारत के एक नागरिक को राष्ट्र पर हमले की परिभाषा के बारे में जो जानना चाहिए उसके बारे में जो जानता हूँ उसके आधार पर कुछ कहने का अधिकार है.
किसी सरकारी सेवक या सरकारी संपत्ति को जानबूझ कर हानि पहुँचाने का कार्य राष्ट्र पर हमले की परिभाषा के अंतर्गत आता है. मुख्यमंत्री की हत्या इसी के तहत है
खुद बलवंत सिंह राजोआना मानता है कि वो तब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह का हत्यारा है. उसे फांसी से माफ़ी भी नहीं चाहिए. बल्कि उसका कहना है कि उस के लिए माफ़ी मांगने वाले उसकी सोच का अपमान कर रहे हैं तो आज पालिटीशियनों को उसके लिए माफ़ी क्यों चाहिए?
ऊपर से वे कुछ भी कहें. इस कानून, उस कानून की बात करें. बेशक कहें कि कानून में कल को फर्क निकल आया तो राजोआना तो वापिस नहीं आएगा. कुछ भी कहें. लेकिन सच ये है कि वे डरे हुए हैं. कल को पंजाब में पैदा हो सकने वाले हालात से ज़्यादा, अपने आप से. कसूरवार तो दरअसल वही हैं. खासकर पंजाब के दोनों सत्तधारी दल. अकाली दल और भाजपा. कांग्रेस चुप है. मगर उसकी चुप्पी और भी शर्मनाक है.
जिस भाजपा के सहयोग से पंजाब की अकाली सरकार चल रही है उसकी दिक्कत ये है कि वो बाकायदा कोर्ट से फांसी की सजा पाए राजोआना की वकालत नहीं कर सकती क्योंकि इस से उसका अफज़ल को फांसी देने का नारा भोथरा होता है. अकाली दल की समस्या ये है कि अगर राजोआना को फांसी पे चढ़ा देने के बाद पंजाब में हालात कुछ भी खराब होते हैं तो इस से फजीहत उसी की होगी. उसकी पुलिस सख्ती करती है तो राजोआना समर्थक सिखों से जायेगी और नहीं करती तो उन से जो मान के चल रहे थे कि बेअंत को कांग्रेस के किये की सजा मिल गई. बलवंत को उसकी.
लेकिन हर कोई अपनी अपनी सुविधा देख रहा है. कांग्रेस इस जुगाड़ में है कि कोर्ट का कहा न मानें तो अकाली और उन से अधिक भाजपाई भुगतें. और अगर फांसी देने से हालात खराब हों तो पंजाब में फिर आतंकवाद लाने का दोष मढें उन पर. मीडिया इस ताक में कि चलो ख़बरों का एक खजाना और खुलेगा. इस पट भी. उस पट भी.
मगर सवाल ये है कि बलवंत सिंह राजोआना को फांसी के बहाने आज ये स्थिति और ये राजनीति है ही क्यों? क्यों अकालियों को लगता है कि बाकायदा कोर्ट से सजा पाए राजोआना को बचाना ज़रूरी है. क्यों वो हर संभव जतन कर रही है. चुनी हुई सरकार की कुछ संवैधानिक मर्यादाएं, सीमाएं हैं तो क्यों वो एसजीपीसी से ही सही मगर अपील डलवा रही है? हालात कहीं खराब हो ही जाएँ तो उसका कुछ दोष अपने भी पल्ले पड़ सकने डर से क्यों कांग्रेसी भी कभी माफ़ी की बात करते तो कभी चुप हो जाते हैं?
सच बात तो ये है कि पंजाब में आतंकवाद की बोई फसल सभी ने खाई बहुत है. पालिटीशियनों ने भी, आतंकवाद की आड़ में लुच्चों लफंगों ने भी, पुलिस ने भी और मीडिया ने भी. सच तो ये है कि आतंकवाद सभी को बहुत सूट करता है. सूट वो नहीं करता तो सिर्फ बेक़सूर मारे जाने वालों को. वे आतंकवादी बता कर मारे गए बेक़सूर युवक हों या फिर उनके ताकत प्रदर्शन में मारे गए बेक़सूर लोग. मैंने एक पत्रकार के रूप में ये सब बहुत करीब से देखा है. देखा है कि कैसे अपनी फीती बढ़ाने के लिए पुलिस वाले ‘अब तक छप्पन’ करते रहे हैं और कैसे एक बेक़सूर मरा तो बीस आतंकवादी पैदा कर के गया है. मैं पंजाब में ऐसी घटनाओं का चश्मदीद गवाह हूँ. मुझे मुनासिब लगता है कि राजोआना को फांसी के सवाल और उस से उपजी आशंकाओं के मद्देनज़र मैं आतंकवाद के उस अर्धसत्य को उजागर करूं जो न देखा, न समझा गया तो फिर पंजाब एक बार फिर अतीत के अन्धकार में प्रवेश कर जाएगा.
बलवंत कानूनी तौर पर कसूरवार है या नहीं. कोर्ट जानें. कोर्ट को वो करना है जो कानून कहे. कोर्ट ने क़ानून के हिसाब से अपना फैसला सुना ही दिया है तो फिर अब इतनी किन्तु परन्तु क्यों है? अगर वो इस लिए है कि फांसी से हालात खराब हो सकते हैं तो फिर सवाल तो ये है कि उन्हें खराब करने का जिम्मेवार कौन है? …मैंने एच.एस.फुल्का को सुना टीवी पर. कह रहे थे कि एक तरफ आप दिल्ली दंगों के दोषियों को सजा न दें. दूसरी तरफ सिखों का कत्लेआम करने का विरोध करने वालों को फांसी पे लटका दें तो ये कहाँ का इन्साफ है? कोई कहेगा कि एक ज़ुल्म का बदला दूसरा ज़ुल्म नहीं हो सकता. ये दलील भी मानी जाएगी कि सजा देने का हक़ सिर्फ अदालत को है. बिलकुल ठीक. लेकिन उन ज़ुल्मों का क्या जो आपके शौके-जूनून से हुए हैं? मैं एक घटना का ज़िक्र करूंगा. ये घटना मेरी आँखों के सामने की है.
4 नवम्बर 1987 का दिन. गुरुपूरब का त्यौहार. मोहाली में नगर कीर्तन करती संगत. ऊपर से फूलों की वर्षा करता हेलीकाप्टर. नीचे इस पूरी घटना को जनसत्ता संवाददाता की हैसियत से कवर करता मैं. इतने में देखा कि शब्द कीर्तन करती संगत के आगे चल रही पुलिस की जीप में आगे बैठे थानेदार ने एक सिख युवक को बुलाया. उसके साथ चार पांच लड़के और भी थे. उनके सामने पुलिस ने उस से कुछ गाली गलौज की. उसको खींच के जीप में डालने की कोशिश की और वो जान बचाने को दौड़ने लगा. थानेदार ने पीछे से गोली मारी. वो धड़ाम गिरा. पुलिस ने उसे उठाया और देखते देखते जीप गायब हो गई. ढोलक चिमटे हाथ में लिए कीर्तन करती भीड़ अब जीप के पीछे पीछे. जीप तो पता नहीं कहाँ गई. लेकिन जीप थाने में गई समझ भीड़ अब थाने के बाहर. हाथों में पत्थर लिए. और फ़ोर्स आई. बड़े बड़े अफसर आये. कोई उस लड़के की मान को बुला लाया. दस लाख रूपये देने और मजिस्ट्रेटी जांच की बात कही. वो सीधी बेचारी. गरीब. लेकिन बेटे की कीमत नहीं ली. मोहाली से आते मेरा घर रास्ते में था. मैंने रुक के चाय पी. रेडियो पे सुना तो खबर ये कि एक आतंकवादी ने पुलिस पे हमला किया. पुलिस वार बचा गई. मगर पुलिस की गोली से वो मारा गया. उसके पास से एक बंदूक और इतने कारतूस बरामद हुए.
मैं आया और मैंने खबर लिखी, जैसे देखी. अगले दिन चंडीगढ़ के एक से एक तुर्रमखां पत्रकार ने घेरा. घूरा और गाली दी. साले, तुझे क्या पड़ी है सरकार के खिलाफ लिखने की? मरने दो इन्हें. ये ऐसे ही मरेंगे. हम पुलिस का मनोबल तोड़ेंगे तो इन्हीं के हाथों खुद भी मरेंगे एक दिन. इसी दिन उसके अंतिम संस्कार के लिए भी संपादक जी ने मुझे ही भेजा. वहां हज़ारों की भीड़. पचास युवकों ने उसकी चिता पे हाथ रख के कसम खाई कि उसकी मौत का बदला ज़रूर लेंगे. मैंने देखे उस दिन आतंकवादी पैदा होते हुए.
मैं ‘जागरण’ में गया तो मेरे संपादक कमलेश्वर जी आये एक बार पंजाब के चार दिन के दौरे पर. अमृतसर में वे रमेश विनायक और मंजीत सिंह जैसे कुछ पत्रकारों से मिले. हमें बताया गया कि कैसे दस को मार गिराने वाला इंस्पेक्टर अपनी बारी से बहुत पहले (आउट आफ टर्न) डीएसपी और बीस को मार गिराने वाला डीएसपी, एसपी बन जाता है पंजाब में. चंडीगढ़ पुलिस का एक इंस्पेक्टर तब डेपुटेशन पर पंजाब जाकर एसपी हो गया था कि जब चंडीगढ़ यूटी में उसके साथी इंस्पेक्टर, डीएसपी भी नहीं बने थे. उन दिनों पंजाब के थानों में रोजनामचे महीना महीना भर पीछे चलते थे. तकरीबन हर थाने में पुलिस दो चार ‘आतंकवादी’ बिठा के रखती थी और आप आज भी अखबार उठा के देख लो तब के. जब भी कोई बड़ा लीडर मरा आतंकवादियों के हाथो, चार छ: आतंकवादी उसी दिन मार के हिसाब बराबर कर देती थी पुलिस. बल्कि उन दिनों शीर्षक भी होते थे अखबारों में कि ” सात आतंकवादियों सहित आठ मारे गए”.
मान लीजिये कि आतंकवादी संगठन जब उपज ही गए पंजाब में तो उन्हें पालने पलोसने वाले भी पैदा हो गए होंगे देश के भीतर और बाहर. उनके लिए आर्थिक मदद भी आने लग गई होगी. जितनी पंहुची होगी उस से ज़्यादा खा भी गए होंगे उनके लिए देश विदेश में चंदा बटोरने वाले. लेकिन इधर जो मर रहे थे वे या तो पंजाब के बेक़सूर लोग थे या फिर बेक़सूर नौजवान सिख. उस अमरजीत जैसे जो गुरपूरब के दिन मोहाली में मारा गया था. मुझे उसकी कहानी बताई बाद में यूटी काडर के एक आईपीएस अफसर ने. पंजाब की पुलिस कभी चाहती थी कि ये अफसर उस अमरजीत का एनकाउन्टर कर दे. उन दिनों एक साइकिल चोरी के इलज़ाम में वो चंडीगढ़ पुलिस के पास था. साइकिल जिस की उसने चुराई थी वो बंदा पंजाब पुलिस में. मोहाली में तैनात था वो. इधर तो वो अपनी सजा काट के जिंदा मोहाली पंहुच गया. मगर उधर बेक़सूर मारा गया. पुलिस ने उसे आतंकवादी और उस से सहानुभूति रखने वालों ने उसे शहीद बना डाला था.
उन्हीं दिनों एक डीआईजी हुआ पंजाब में. पंजाब अर्धसैनिक बलों के भरोसे था. सीआरपीएफ चप्पे चप्पे पे लगानी पड़ी थी. इसी में था, डीआईजी चमन लाल. वो पहला मर्द का बच्चा देखा मैंने जिसने सच कहने की हिम्मत जुटाई. उसने कहा था, एक बेक़सूर को मारोगे तो बीस आतंकवादी पैदा करोगे. उसे हटा दिया गया था पंजाब से.
राजोआना गलत है. अपराधी है. चढ़ा दो सूली पे उसे. लेकिन इस बात की गारंटी कौन लेगा कि फिर कोई किसी अमरजीत की चिता पे हाथ रख के बदला लेने की कसम नहीं खाएगा. मेरा ये पक्का विशवास है कि अगर इस बात का इत्मीनान हो जाए तो ये बलवंत सिंह राजोआना भी एक नहीं, दस बार फांसी पे चढ़ जाएगा. सवाल आज उसकी फांसी का नहीं, उस नसलकुशी का है जो पंजाब में कई साल हुई है. उस ऐशो आराम का है जो घर के मर्दों को मार या भगा कर पुलिस वालों को सिर्फ महिलाओं वाले घरों में मिलता था. उन चिताओं का है जो खुद सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक़ पुलिस ने लावारिस बता के जलाई हैं. बलवंत राजोआना को फांसी हो, उम्र कैद या दोनों से माफ़ी. ये उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना ये कि राजोआना पैदा होते ही क्यों हैं? अपना ये मानना है कि अपनी अपनी राजनीति नहीं होगी तो ऐसे ऐसे राजोआना भी नहीं होंगे. इस अर्थ में राजोआना से एक अंत क्यों, एक शुरुआत भी जन्म ले सकती है.
(Courtesy:www.journalistcommunity.com)
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